जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥
जाति , देश , काल एवं समय से परे ये सार्वभौम महाव्रत है ।
ये महाव्रत जन्म , स्थान , समय से परे हैं । ये हमेशा एवं हर जगह लागू होते हैं । अष्टांग योग सार्वभौम महाव्रत हैं ।
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥
शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान – ये नियम हैं ।
नियम अपने देह एवं मन को नियंत्रित करता है । इसके पाँच अंग हैं = (1) शौच – स्वयं को शुद्ध एवं साफ रखना शौच है । (2) संतोष – जितनी संपत्ति और क्षमता है , उस में प्रसन्न रहना संतोष है । (3) तप – तप में शरीर एवं मन को अभ्यास से योगानुसार ढालते हैं । (4) स्वाध्याय – स्वाध्याय में आप्त वाक्यों का स्वयं अध्ययन करते हैं । (5) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुये प्राणों का अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है ।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३३ ॥
वितर्क भावों को प्रतिपक्ष भावों से रोका जा सकता है ।
वितर्क अर्थात क्लिष्ट पैदा करने वाले भावों को प्रतिपक्ष अर्थात विपरीत भावों से रोका जा सकता है । जैसे अगर घृणा की भावना हो , तो ऐसा सोचना चाहिये की प्रेम की भावना उत्पन्न होने लगे । ऐसा सोचना की अंततः ये वितर्क भाव दुख ही देते हैं , ये भी प्रतिपक्ष भाव है । वितर्क भावों से होनेवाले दुख के बारे में सोचने से भी प्रतिपक्ष भाव पैदा होते हैं ।
वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥
हिंसा आदि वितर्क भाव , जो स्वयं , दूसरों से अथवा अनुमोदित करने से मृदु , मध्य अथवा अधिमात्रा में उत्पन्न होता है , दुख एवं अज्ञान रुपी अनंत फल देता है – यही प्रतिपक्ष भाव है ।
इस सूत्र में वितर्क भावों की व्याख्या की गयी है । ये वितर्क भाव पाँच यम के विपरीत भाव है – हिंसा , असत्य , स्तेय , परिग्रह एवं भोग । तीन प्रकार के कर्ता होते हैं – कृत अर्थात जो स्वयं करे , कारित अर्थात जो दूसरो से करवाये एवं अनुमोदित अर्थात जो इन भावों की अनुमोदना करे । ये भाव तीन प्रकार के हो सकते हैं – मृदु अर्थात कमजोर , मध्य , एवं अधिमात्रा अर्थात काफी तीव्र भाव । इस प्रकार इस सूत्र में पतंजलि मुनि ने 45 प्रकार के वितर्क भावों में भेद बतलाया है । ये सभी वितर्क भाव दुख एवं अज्ञान पैदा करते हैं ।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ३५ ॥
अहिंसा में प्रतिष्ठित होने पर , उनके सान्निध्य में वैर का त्याग हो जाता है ।
जो व्यक्ति अहिंसा में प्रतिष्ठित हो गया हो , उसमें दूसरों को चोट पहुँचाने की भावना समाप्त हो जाती है । वह प्रेम परिपूर्ण होकर सारे जीव जंतुओं से प्रेम करने लगता है । फलस्वरुप जो भी उनके सन्निध्य में आते हैं , उनके भी वैर समाप्त होने लगते हैं ।
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर क्रिया के फल का आश्रय हो जाता है । जो सत्य में प्रतिष्ठित है , वह कर्म और उससे होने वाले फल को सही देखना शुरु कर देते हैं । इससे कर्म के सही फल मिलना शुरू हो जाता है ।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७ ॥
अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर सभी रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।
अस्तेय का अर्थ है – चोरी न करना । जो सम्पत्ति अपनी अर्जित न हो , उसे अपना कर लेना अस्तेय है । अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर दूसरों का विश्वास बढने लगता है । इससे उस व्यक्ति के पास सारी आवश्यकता की चीजें स्वयं उपलब्ध होने लगते हैं ।
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्य का लाभ होता है ।
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर शक्ति बढ्ने लगती है । ब्रह्मचर्य में लैंगिक संबंधों में संयंम की अत्यावश्यकता है । वीर्य से शक्ति बढती है , और संयंम से मानसिक एवं शारीरिक शक्ति का विकास होता है ।
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ ३९ ॥
अपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर जन्म के कारण का संबोध हो जाता है ।
अपरिग्रह का अर्थ है – अनावश्यक वस्तुओं को इकट्ठा न करना । जो आवश्यक हो , उनका ही उपयोग करना । इस प्रकार जब अनावश्यक वस्तुओं से लगाव कम हो जाता है तो जन्म के सही कारण का संबोध होने लगता है ।
शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥ ४० ॥
शौच से अपने अंग से वैराग्य एवं दूसरों से संसर्ग न करने की भावना होती है ।
शौच से यह पता चलता है कि अपना शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है । इसको हमेशा साफ रखने की आवश्यकता रहती है । यह जानकर कि य देह मलिन है , अपने अंगों से वैराग्य होने लगता है । दूसरो के अंगों से भी संसंर्ग करने की भावना समाप्त होने लगती है ।